भावनात्मक संवेदनाओं को आघात करके सिंहासन पाने की होड
वैश्विक महामारी का दौर एक बार फिर चरम सीमा की ओर बढने लगा है और इसी के साथ बढने लगा है कंपकपाती ठंड में राजनैतिक तापमान। विधान सभाओं में सदस्य बनकर पहुंचने की होड में जहां क्षेत्र के नेता पार्टियों से टिकिट पाने की जुगाड बना रहे हैं वहीं राजनैतिक दलों के मध्य मतदाताओं को लुभाने के लिए नित नये फारमूले आजमाये जा रहे हैं। ईश निंदा और बेअदवी के मामलों में भी खासा इजाफा हो रहा है। इस तरह की घटनाओं के पीछे राजनैतिक बयानबाजी का दौर भी शुरू हो जाता है। स्वर्ण मंदिर में हुई निंदनीय घटना को लेकर अतीत को खंगालने का दौर भी चल पडा है। केरल की हत्याओं ने भी कानून व्यवस्था के दावों पर प्रश्नचिन्ह अंकित करना शुरू कर दिये हैं। सम्प्रदायवाद के साथ-साथ जातिगत समीकरणों के आधार पर सत्ता तक पहुंचने की ललक सभी पार्टियों में स्पष्ट दिखाई दे रही है। कहीं केसरिया रंग को लेकर विवाद हो रहा है तो कहीं हरा रंग पोत कर अतिक्रमण की कोशिशें फिर से तेज हो गईं हैं। खुले में नमाज, अजान की आवाज, पूजा के लिए सडकों पर पंडाल, धार्मिक जलूसों की भीड, लालच देकर धर्मान्तरण करवाने की घटना जैसे अनेक कृत्य विवाद का विषय बनकर राजनैतिक दलों से लेर उनके सहयोगी संगठनों तथा समर्थित संस्थाओं के लिए सक्रियता हेतु ईंधन उपलब्ध करवा रहे हैं। वास्तविकता तो यह है कि आस्था, श्रध्दा और जीवन जीने का ढंग नितांत व्यक्तिगत कारक हैं। सामाजिक ढांचे को व्यवस्थित करने के लिए आज समरसता के स्थान पर धार्मिक रूढियां स्थापित होने लगीं हैं। कहीं शिरियत कानून लागू करने की बात हो रही है तो कहीं हिन्दू राष्ट्र की वकालत आकार ले रही है। पैत्रिक संस्कारों की पौध को बेहद विकृत और हिंसक बनाया जा रहा है। सोच को सीमित करके निजिता को बंधनकारी बनाने की प्रतिस्पर्धा तेज होती जा रही है। दूसरों पर अपनी जीवन शैली थोपने के लिए भीड, भीड का आतंक और आतंक का दबाव नित नये सोपान तय कर रहा है। इसी विकृत मानसिकता को सरकारें भी हवा दे रहीं है, विपक्ष भी बढावा दे रहा है और संचार माध्यम भी विवादों को परोस कर टीआरपी बटोर रहे हैं। दु:खद घटनाओं को पलक झपकते ही पंख मिल जाते हैं। वीडियो वायरल होने लगते हैं। बयान आने लगते हैं। संबंधित समुदाय के निठल्ले लोगों को सक्रिय होकर सुर्खियां बटोरने का मौका मिल जाता है और फिर सुलग उठता है मुद्दा। विकास को गति देने के स्थान पर विनाश से बचने में सरकारी तंत्र लग जाता है। प्रशासनिक कार्यवाही होते ही उसे सत्ताधारी दल से प्रेरित, पक्षपातपूर्ण और एकतरफा बताने के लिए विपक्ष मोर्चा खोल देता है। यूं तो चुनाव काल होने के कारण अफवाहों की आंधी का अंदेेशा रहता ही है परन्तु धार्मिक उन्माद, जातिगत दंगे और ईशनिंदा जैसे कार्यों का अफवाहों मेें शामिल होना कदापि सुखद नहीं कहा जा सकता। वर्तमान में महामारी ने विश्व के आर्थिक, सामाजिक और विकासात्मक ढांचे को पूरी तरह से तहस-नहस कर रखा है, ऐसे में ईशनिंदा, धार्मिक मनमानियां और अभिव्यक्ति की आजादी की दुहाई पर कट्टरपंथियों का खुला तांडव करना मानवता के लिए सबसे ज्यादा घातक है। कहीं इस्लामिक देशों की एकजुटता के पीछे विस्तारवादी नीतियां खुला सामने आ रहीं हैं तो अनेक देशों की सीमाविस्तार की परम्परायें अब परमाणु हथियारों की होड में लगीं है। हथियारों की आवश्यकता अन्याय करने के लिए पडती है और फिर अन्याय से सुरक्षा के लिए भी। पहली स्थिति में सुख, संपन्नता और सम्मान से जुडी अति महात्वाकांक्षाओं की पूर्ति हेतु किये जाने वाले मनमाने कृत्य हैं जबकि दूसरी स्थिति में स्वयं के अस्तित्व को बचाये रखने हेतु किये जाने वाले प्रयास हैं। मगर जनबल, धनबल और साधनबल के आधार पर चारों ओर मनमानियां हो रहीं हैं। अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर गठित संस्थायें आज छठीं अंगुली की तरह महात्वहीन हो चुकीं हैं। अफगानस्तान की आम आवाम की चीखें गूंजतीं रहीं, जुल्म की कहानियां लिखीं जातीं रहीं, आतिताई अपने मंसूबे पूरे करने के लिए खूनी खेल खेलते रहे और विश्व के कथित ठेकेदार देश मूक दर्शक बने पीडित होती मानवता पर खामोशी अख्तियार किये रहे। ये वही देश हैं जो स्वयं पर होने वाली किसी टिप्पणी पर बिफर उठते हैं। परमाणु हथियारों के जखीरे की बात करने लगते हैं। विश्व को महामारी की सौगात देने वाला चीन आज पहले से ज्यादा दहाड रहा है। तत्कालीन अमेरिका के राष्ट्रपति ट्रंप के अलावा किसी भी देश ने महामारी को चीनी वायरस नहीं कहा था। आखिर हथियारों, आवादी और तकनीक की दम पर दादागीरी करने वाले चीन के अन्याय पर भी विश्व विरादरी शांत ही रहीं। विश्व स्वास्थ्य संगठन भी मौन रहा। ईमानदाराना बात तो यह है कि स्वयं को जीवित रखने के लिए हमें खुद ही सुरक्षा कवच बनाना पडेगा अन्यथा दूसरों के शोषण का शिकार बनना लगभग तय ही है। आज देश दुनिया के हालत बद से बद्तर हो चले हैं। अनेक राज्यों में आने वाले चुनावों की आहट हफ्तों पहले से सुनाई देने लगी है। दलगत हथकण्डों की आग से उठने वाला धुंआ धर्म, जाति, क्षेत्र के नाम पर लोगों को लडाने का गुबार पैदा कर रहा है वहीं मफ्तखोरी की घोषणाओं के अंबर तले नागरिकों को आलसी बनाने का षडयंत्र भी जारी है। देश के नागरिकों की भावनात्मक संवेदनाओं को आघात करके सिंहासन पाने की होड लगी है। एक जागरूक नागरिक होने के नाते धर्म को निजिता तक सीमित रखना और राष्ट्रभक्ति को आचरण में उतारना जरूरी हो गया है तभी देश की आदिकालीन गरिमा बच सकेगी। इस बार बस इतना ही। अगले सप्ताह एक नई आहट के साथ फिर मुलाकात होगी।