भविष्य की आहट / डा. रवीन्द्र अरजरिया अधिमान्य पत्रकार
देश के अधिकांश नागरिकों की राष्ट्रवादी सोच अभी तक पुष्ट नहीं हो सकी है। गुलामी की मानसिकता, स्वार्थ सिध्द का लक्ष्य और व्यक्तिगत चाहत के समुच्चय से बना त्रिशूल मां भारती की छाती को निरंतर जख्म दे रहा है। अतीत की वास्तविक उपलब्धियों को नजरंदाज करने वाले नागरिकों ने जाति, धर्म, क्षेत्र, भाषा के आधार पर ही हाल में सम्पन्न हुए निर्वाचन में मतदान किया है। तुलनात्मक अध्ययन को हाशिये पर छोडकर प्रत्याशी से व्यक्तिगत संबंधों को तौला गया, व्यक्तिगत हित देखे गये और भविष्य के लाभ की संभावनायें तलाशी गईं। राष्ट्र, राज्य और समाज की कीमत पर स्वार्थपूर्ति स्वीकारने वालों ने अपने वोट से प्रत्याशियों के भाग्य का फैसला कर दिया। उनका चुना गया प्रतिनिधि अपनी पार्टी के प्रत्येक आदेश पर हाथ उठाने का ही काम करेगा। उसे पार्टी की नीतियों, रीतियों और प्रस्तावों पर केवल और केवल सहमति प्रगट करने वाली कठपुतली ही बनना पडेगा। ऐसे में छोटे-मोटे व्यक्तिगत हितों को पूरा करने के अलावा उसके हाथ में क्षेत्र का भाग्य बदलना कदापि नहीं होगा, राज्य या देश की किस्मत लिखना तो दूर की बात है। राजनैतिक पार्टियों की सोच उसकी कथनी-करनी की समानता के मापदण्ड से तौली जाती है। राष्ट्रवादी सोच का ढकोसला करने वाले दल कभी जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के टुकडे-टुकडे गैंग के साथ खडे हो जाते हैं तो कभी खालिस्तान का झंडा लेकर हिमाचल में उत्पात मचाने वालों पर कार्यवाही होने पर जबाबी प्रतिक्रिया व्यक्ति करते है। कहीं एक परिवार का गुलाम बनकर लाभ लेने की मानसिकता मुस्कुराती है तो कहीं जातिवाद का जहर कुछ लोगों में खून बनकर दौडने लगता है। संकुचित मानसिकता में डूबे लोगों की सोच व्यक्तिगत हितों को दायरे से बाहर निकल ही नहीं रही है। जब नागरिकों को स्वाधीनता देने वाला संविधान ही नहीं रहेगा, सभी धर्मो को सम्मान देने की स्थिति ही नहीं रहेगी, एक वर्ग विशेष के अपने नियम-कानून थोपे जायेंगे तब लोगों के पास जीवन की रक्षा हेतु केवल चाटुकारिता, पराधीनता और सत्ता को स्वीकारोक्ति देने का एकमात्र मार्ग ही शेष बचेगा। स्वाधीनता के बाद से निरंतर लम्बे समय तक एक वर्ग विशेष के तुष्टीकरण के बाद पुष्टीकरण तक पहुंचाने वालों ने गणतंत्र की जडों में मट्ठा ही पिलाया है। उन्होंने गोरों के रिमोड पर चलते हुए दूरगामी नीतियां निर्धारित की और देश को एक धर्म विशेष के हाथों में सौपने के सपने को साकार करने वाला संविधान थोप दिया, तब देश का आम आवाम सोता रहा। आपातकाल में एक धर्म विशेष के अनुयायियों को ही नसबंदी के माध्यम से सीमित किया गया, तब भी देश का आम आवाम सोता रहा। उसके पहले जब सोमनाथ पर बाह्य आक्रान्ताओं ने आक्रमण किया, तब भी देश का आम आवाम सोता रहा। जब विदेशी आक्रमणकारियों से सैनिक जूझ रहे थे, तब भी देश का आम आवाम सोता रहा और आज जब कुछ राज्यों के चुनावों के परिणाम सामने हैं तो लगता है कि कुछ जगह आज भी देश का आम आवाम सो रहा है। देश का वो सोते रहने वाला आम आवाम शायद देश को एक बार फिर टुकडों में विभक्त होते देखना चाहता है, पुन: गुलामी के बंधन में तडफता देखने की चाहता है या फिर चाहता है धार्मिक कानूनों की बंदिशे। सत्ताधारी पार्टी के सकारात्मक कार्यों को भी प्रश्नवाची चिन्हों से रंगने वाला विपक्ष वास्तव में विपक्ष नहीं होता बल्कि सत्ता हासिल करने की इच्छा से कार्य करता है। सत्य का विपक्ष असत्य ही हो सकता है और जो असत्य का पक्षधर हो उसे स्वार्थी विपक्ष कहना अतिशयोक्ति न होगी। मुफ्तखोरी की आदतें डालने वाली पार्टियां निश्चय ही अपनी निकम्मी जनता के पेट में मेहनतकश लोगों का खून डालकर उन्हें संतुष्ट करना चाहतीं हैं। मौन रहकर जुल्म को सहने के कारण ही गुलामी की जंजीरें हमारे गले में बांध दी जातीं हैं। सुभाष, आजाद, बिस्मिल जैसों को फांसी दिलने वालों की पार्टियों में आज भी आधुनिक जयचन्दों की फौज भर्ती हो रही है। प्रशासन के दांवपेंचों में महारत हासिल करने के बाद शासन पर काबिज होने वाले की गरज से बनाई गई पार्टी ने आज खालिस्तान को अघोषित मान्यता देकर उनकी गतिविधियों को नजरंदाज करना शुरू कर दिया है। वहीं गोरों के प्रवेश व्दार पर बैैठी सत्ता बांगलादेशियों को भारतवासी बनने पर तुली है। राज्यपाल के साथ तनाव पैदा करके कुछ राज्यों की सरकारें अपनी जनता के सामने स्वयं के असम्भव वायदों की पूर्ति न कर पाने के लिए केन्द्र को कठघरे में खडा कर देतीं हैं। दिल्ली दरवार में कटोरा लेकर खडी रहने वाली अनेक राज्यों की सरकारें कर्ज की रोटी को कुत्तों के सामने परोसने से बाज नहीं आ रहीं हैं। गुलामी के दरवाजे पर दस्तक देता वर्तमान यदि समय रहते सचेत होकर संवारा नहीं गया तो भारत गणराज्य का नाम बदलते देर नहीं लगेगा और न ही देर लगेगी संविधान को बदलते। गुलामी की इस इबारत पर अनेक कट्टर राष्ट्र पहले से ही हस्ताक्षर कर चुके हैं। पीठ पर छुरा भौपने की तैयारी कर चुके हरामखोरों को अनेक कथित कल्याणकारी योजनाओं से मुफ्त में रोटी, कपडा और मकान मिल रहा है, सरकारी जमीनों पर किये गये अवैध कब्जों को वैध कराया जा रहा है और किया जा रहा है कर्ज में ली गई रकमों को माफ। जब बिना काम के दाम मिल रहे हैं तो फिर टाइम पास करने के लिए कथित धर्म का काम करना ही अनेक लोगों का एक मात्र लक्ष्य बन चुका है। ऐसी सोच वाली पार्टियों से देश का विकास नहीं होगा बल्कि विनाश के दरवाजे स्वत: ही खुल जायेंगे। ऐसे में देश की आम आवाम को जगाना तब तक संभव नहीं होगा जब तक घर के अंदर की कलह अपनों की माथा फोडी न बन जाये। स्वयं पर विपत्ति के बादल मडराने पर ही अपनों की याद आती है जबकि बाकी समय केवल अपनी ही याद रहती है। स्वार्थ का बुनियाद पर खडे शीश महल में दरार पडते ही सत्य की ओर बढने की डुंडी पीटी जाने लगती है। वर्तमान में कश्मीर समस्या, मंदिर समस्या, विदेशी सम्मान समस्या, वित्तीय समस्या, खाद्यान्य समस्या, आतंकवादी समस्या, पत्थरबाजी समस्या, ध्वनि प्रदूषण समस्या, गंदगी समस्या जैसी अनगिनत समस्याओं के समाधान के बाद भी देश का आम आवाम अपनी मानसिक गुलामी, संकीर्ण मानसिकता और स्वार्थपरिता की नींद से नहीं जाग रहा है। ऐसे में यदि कुछ समय और अलसाई आंखों को बंद रखा तो वे दिन दूर नहीं जब रात की नींद ही दफा हो जायेगी, दिन का चैन ही खत्म हो जायेगा और मिट जायेगी खुद की आजाद हस्ती। इस बार बस इतनी ही। अगले सप्ताह एक नई आहट के साथ फिर मुलाकात होगी।