भविष्य की आहट / डा. रवीन्द्र अरजरिया अधिमान्य पत्रकार
संसार में चिकित्सक को दूसरा भगवान माना जाता है। शारीरिक व्याधियों से तडफते जीव को राहत पहुंचाने में चिकित्सक का योगदान, उसकी मानवता और उसके समर्पण को हमेशा ही आदरणीय माना जाता रहा है परन्तु वर्तमान में अनेक चिकित्सकों के व्यवहार, उनकी धनलोलुपता और स्वार्थपरिता के उदाहरणों से समाज निरंतर आहत हो रहा है। सरकारों के प्रयास जहां आम आवाम तक स्वास्थ सेवाओं की अत्याधुनिक तकनीक पहुंचाने हेतु तीव्रगामी हो रहे हैं वहीं सरकारी अस्पतालों के चिकित्सकों की मनमानियां चरम सीमा पर पहुंचती जा रहीं हैं। मरीजों को निजी क्लीनिकों की ओर भेजने का माहौल बनाना, तडफते व्यक्तियों की पीडा को नजरंदाज करना तथा तामीरदारों के साथ बदसलूकी जैसे घटना क्रम आये दिन सुर्खियां बनते रहते हैं। जागरूक तामीरदारों व्दारा चिकित्सक को उसके दायित्व बताने के बदले में मारपीट, फर्जी प्राथमिकी और मरीज की जान का जोखिम भुगतना पडता है। तिस पर डाक्टर्स एसोसिएशन, जूनियर डाक्टर्स एसोसिएशन एवं विभागीय कर्मचारी संघों के बैनर तले आये दिन होने वाली हडतालें, विरोध प्रदर्शन और सुविधाओं की भरमार वाली मांगों के ज्ञापन देने का क्रम ने तीव्रता ग्रहण कर ली है। दवाओं के मूल्यों का निर्धारण करने वाली संस्था तो कब से कान में तेल डालकर सो रही है, शायद ही किसी को पता हो। तभी तो पांच पैसे की लागत से बनने वाली औषधियों के डिब्बों पर भारी भरकम मूल्य छपा रहता है। आश्चर्य तो तब होता है जब सरकार के आदेशानुसार सरकारी अस्पतालों में विभागीय आपूर्ति वाली दवायें नि:शुल्क देने की व्यवस्था होने के बाद भी परिसर के बाहर दवाइयों की दुकानों पर हमेशा भारी भीड लगी रहती है। डाक्टरों के चैम्बर्स के बाहर भीड की शक्ल में शारीरिक पीडित अन्दर जाने की मसक्कत करते हैं जबकि अन्दर एमआर यानी कि किसी निजी दवा कम्पनी का प्रतिनिधि डाक्टर को धन कमाने के नुक्से समझा रहा होता है। ऐसे में वहां मौजूद दलाल दर्द से तडफते मरीजों को डाक्टर साहब के घर पर दिखाने की सलाह देकर बहलाते-फुसलाते हैं और कमाते है कमीशन में मोटी रकम। परिसर के बाहर दवाइयों की दुकानों पर भीड, सरकारी डाक्टर के बंगलों तथा निजी क्लीनिकों पर मरीजों का तांता, भारी बजट के बाद भी बदहाल सरकारी अस्पताल, चैम्बरों से नदारत चिकित्सक, परीक्षणों की सुविधाओं की उपलब्धता के बाद भी निजी डायग्नोसिस सेन्टर्स की संख्या में इजाफा जैसे अनेक प्रत्यक्ष गवाह हैं जिनकी गवाही को एसोसिएशन के संख्याबल, उनके धमकी भरे क्रियाकलाप तथा चोर-चोर मौसेरे भाई की कहावत का चरितार्थ होते स्वरूप के व्दारा नकार दिया जाता है। इस मन-तंत्र की व्यवस्था को लागू करने वाले अधिकारियों के व्दारा जागरूक नागरिकों को गुमराह करके विधायिका को ही एक मात्र उत्तरदायी ठहराया जाता है। खादी पर दाग लगाने वाले अधिकारियों का एक बडा वर्ग जरूरतमंदों की ब्रेन वाशिंग करके नेताओं को चोर सावित करने में लगा रहता है ताकि उनकी ओर उठने वाली अंगुलियों को इच्छित दिशा में मोडा जा सके। चिकित्सकों के विरुध्द होने वाली शिकायतों की जांच का जिम्मा भी उन्हीं में से वरिष्ठ हो चुके चिकित्साविद् को ही सौंपा जाता है जो अपने अतीत की घटनाओं को सामने रखकर वर्तमान पर आख्या प्रस्ततु करते है। सरकारी महकमे से मोटी पगार पाने वाले डाक्टरों की निजी प्रेक्टिस से होने वाली अनगिनत आय का कोई लेखा-जोखा न तो रखा जाता है और न ही उन पर विभागीय छापे ही पडते हैं। पैथोलोजी से लेकर सीटी स्कैन, एमआरआई, एक्स-रे सेन्टर्स पर बिना डिग्रीधारी लोगों की मौजूदगी रहती है, इन सेन्टर्स की रिपोर्ट पर जरूर डिग्रीधारी के कथित हस्ताक्षर होते हैं। प्रश्न यह उठता है कि जब सरकारी चिकित्सालयों में जांचों से लेकर दवाइयों तक का मुफ्त में इंतजाम है तो फिर परिसर के बाहर फार्मास्टि के नाम पर दवाइयों की दुकानें, पैथोलोजिस्ट के नाम पर जांच केन्द्र तथा रेडियोलोजिस्ट के नाम पर सेन्टर की संख्याओं में आशातीत वृध्दि कैसे हो रही है। सरकार का स्वस्थ अमला निरंतर आंकडों की बाजीगरी करता रहा है। अधिकारियों की एक बडी जमात अपने वातानुकूलित पर्दे लगे वाहनों से सर्वसुविधा संपन्न वातनुकूलित चैम्बरों में बैठकर केवल संविदाकर्मियों पर रौब झाडती हैं, धरातली कार्यो के फर्जी आकडे बनाने का दवाव डालती हैं और ऐसा न करने पर संविदा समाप्त करने की धमकी देती है। अनेक बार तो जनप्रतिनिधियों तक को स्वास्थ विभाग के आला अफसरों के सामने अपने स्वजनों की प्राण रक्षा हेतु गिडगिडाते देखा जा चुका है। मुफ्त चिकित्सा के लिए सरकारी अस्पतालों के अलावा अनेक निजी चिकित्सालयों को भी नामित किया गया है। इन निजी संस्थाओं में इलाज के लिए आने वाले पात्र व्यक्तियों का पूरा खर्चा सरकारी खजाने से होता है। इस जनकल्याणकारी योजना को चिकित्सा माफियों ने लूट का धंधा बना लिया है। छोटे कस्बों से लेकर महानगरों तक एक सिंडीकेट काम करता है। सिंडीकेट के धरातली दलाल अपने-अपने क्षेत्र के मुफ्त इलाज के पात्र व्यक्तियों से चन्द सिक्कों के लालच में उनके आवश्यक कागजात लेकर सूचीवध्द निजी अस्पतालों तक पहुंचा देते हैं। कागजात मिलने के बाद औपचारिकतायें पूरी कर ली जातीं है और हडप लिये जाते हैं बिना इलाज के लाखों रुपये। ऐसे कई मामले बिहार, झारखण्ड, उत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश में उजागर हो चुके हैं जिसमें आपरेशन के नाम पर निजी चिकित्सालयों ने बिल लगाकर पैसे डकार लिये थे। अस्पताल, दलाल और पात्र व्यक्ति के मध्य हुए लेन-देन के विवाद ने संवेदनशील लोगों को जागरूक बना दिया। शिकायतें हुई तो आपरेशन के निशान तक कथित मरीज के शरीर पर नहीं मिले। चिकित्सा माफियों के आगे बौनी होती सरकारें यदि स्वास्थ अधिकारियों की समान स्वार्थकपरिता को ध्वस्त नहीं कर पायीं तो निश्चय ही समाज के अंतिम छोर पर बैठे व्यक्ति की सांसों को स्वस्थ रखने के उनके मंसूबे नस्तनाबूत हो जायेंगे। इस बार बस इतनी ही। अगले सप्ताह एक नई आहट के साथ फिर मुलाकात होगी।