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April 28, 2024
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तुष्टीकरण का नतीजा है साम्प्रदायिक दंग

यह साप्ताहिक कालम है जो प्रत्येक रविवार को भेजा जाता है और सोमवार को देश के 12 राज्यों के 36 स्थापित राष्ट्रीय समाचार पत्रों में नियमित रूप से प्रकाशित होता है*

भविष्य की आहट / डा. रवीन्द्र अरजरिया

देश को तबाह करने के लिए अन्तर्राष्ट्रीय चाले तेज होती जा रहीं हैं। आतंकी संगठनों को संरक्षण देने वाले देशों से मिलने वाली सहायता में निरंतर बढोत्तरी की जा रही है। कश्मीर का राग अलापने वालों व्दारा सोची समझी चाल के तहत आतंक की चर्चा के मध्य कट्टरपंथी सोच को जानबूझकर उछाला जाता रहा है। आराध्य देवों से लेकर पैगम्बर तक की जीवनियों को तर्कों के माध्यम से रेखांकित किया जाता रहा है। सडक पर पडे पत्थरों को प्रतिमाओं की तरह पूजने की शिक्षा दी जाती रही है। एक धर्म के सम्मान की रक्षा करने वाले ठेकेदारों ने हर मौके पर दूसरे मजहबों का खुले आम मुखौल उडाया। गांव-गली, मकान-दुकान, चौपाल-चौराहों पर धार्मिक झंडे लगा कर वर्चस्व की ललकार दिखाई जाती रही है। इबादत के निहायत निजी मामले को प्रदर्शन का अंग बनाया जाता रहा है। खासतौर पर जुमा के रोज की भीड का भय दिखाने की कबायत भी निरंतर तेज की जाती रही। अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भारत की उठती छवि से बौखलाकर अनेक राष्ट्रों से संचालित भारत विरोधी संगठनों ने एक साथ बैठकर दूरगामी षडयंत्र रचा और मौके की तलाश करने लगे। पहले टारगेट किलिंग के माध्यम से कश्मीर के गैर मुस्लिम लोगों को भगाने की पहल शुरू हुई। यह तो केवल ध्यान भटकाने की एक छोटी सी चाल थी। वास्तविक मुद्दा तो धर्म के नाम पर देश व्यापी अशांति फैलाने, कानून की धज्जियां उडाने, भीड का राज्य कायम करने, जनबल के व्दारा संवैधानिक व्यवस्थाओं को तार-तार करने तथा इन सब के आधार पर अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर मुस्लिम राष्ट्रों को इस आग में घी डालने हेतु तैयार करना था। राजनैतिक आकाओं, धार्मिक गुरुओं और आस्था के व्यवस्थापकों के भडकाने वाले बयानों से समय समय पर सौहार्द बिगाडने का काम किया जाता रहा है। इस तरह के प्रयासों पर प्रतिक्रियायें भी हुई मगर वे अपेक्षाकृत नगण्य ही रहीं। यह सारी तैयारियां लम्बे समय से चल रहीं थीं। तभी एक स्थान पर तार्किक बिन्दुओं पर नूपर शर्मा ने अपनी बात रखी। बस कौवा कान ले लगया, का नारा लगने लगा। बात को घुमा फिराकर ज्वलंत मुद्दा बना दिया गया। देश में नफरत के खौलते लावे को ज्वालमुखी बनाने वालों को मौका मिल गया। ऊपर से शांत दिखने वाली धरती की कमजोर परत को एक संदेश ने तोडा और फूट पडा विनाश का दावानल। ज्यों-ज्यों समय गुजरता गया, उस ज्वालामुखी की लपटों को तेज किया जाता रहा। विदेशों में बैठे आतंकवादियों के आकाओं ने खजाने खोल दिये। सोशल मीडिया, संचार माध्यमों और इंटरनेट के सहारे दुनिया के मुस्लिम देशों को नबी की अजमत के नाम पर इकट्ठा किया जाने लगा। देश की मजहबी कौम को दंगे की आग में झौंक दिया गया। ऐसा करने वालों ने अपनी औलादों को इस तपिश से दूर ही रखा। दूसरों के नाबालिग बच्चों के हाथ में पत्थर पकडा दिये, पेट्रोल बम दिये और कर दिया अवैध असलहों से लैस। कश्मीर की ओर ध्यान केन्द्रित करने वाला शासन तंत्र समूचे देश में फैलाई जा रही अराजकता को काबू करने में जुट गया। विकास के मायने, शांति की परिभाषायें और विश्वगुरु बनने के सपने बीच में ही छूटने लगे। तुष्टीकरण का नतीजा है साम्प्रदायिक दंगे। एक देश-एक कानून, के बाहर रहने वाले राष्ट्रों में ज्यों ही एक वर्ग विशेष की आबादी बढती है त्यों ही वहां पर सत्ता हथियाने की कबायतें तेज होने लगतीं हैं और फिर शुरू हो जाता है संविधान का धार्मिक कानून में हस्तांतरण। आज विश्व में अनेक मुस्लिम राष्ट्र हैं जबकि अन्य धर्म के राष्ट्र के रूप में मान्यता पाने वाले भू-भाग नगण्यता ही है। ईमानदाराना बात तो यह है कि धार्मिक आचरण दिखावे की वस्तु नहीं है बल्कि व्यक्तिगत संतुष्टि का साधन है परन्तु समूची दुनिया में कुछ कट्टरपंथियों ने निजता के इस विषय को सार्वजनिक उपक्रम बना दिया है। अतीत में कबीलों के क्रूर लुटेरों व्दारा हथियाई बादशाहत को फिर से हासिल करने के मंसूबे पालने वालों ने स्वाधीनता के बाद, सोची समझी साजिश के तहत तब तक खामोशी अख्तियार की जब तक उनका जनबल, धनबल और पहुंचबल मजबूत नहीं हो गया। वर्तमान में अनेक ऐसे गांव है जहां के मूल निवासी अल्पसंख्यक हो गये है, अनेक बाजारों पर केवल और केवल एक ही वर्ग का कब्जा हो गया है, अनेक धंधे है जहां दूसरे वर्ग के लोगों की आमद होते ही उन्हें समाप्त कर दिया जाता है। एकाधिकार की यह मानसिकता केवल कश्मीर ही नहीं बल्कि पूरे हिन्दुस्तान में देखी जा सकती है जहां एक वर्ग की आबादी बढते ही दूसरे वर्ग के लोगों को खदेडना शुरू कर दिया जाता है। पलायन का मुद्दा घाटी से बाहर निकल कर नासूर बन चुका है। एक वर्ग को पोषित करने की मानसिकता वाले लोगों की सरकारों ने तुष्टीकरण के हथियारों में हमेशा ही घातक जहर भरा है। सत्ता के लालची लोगों ने स्वार्थ की बुनियाद पर खडे होने वाले भौतिक संसाधनों के महल के लिए लोगों की भावनाओं और संवेदनाओं को नींव में पत्थर बनाकर दफना दिया था। कट्टरता को संगठन की जलती मशाल बनाकर एकता के लोहे को निरंतर तपाया जा रहा है, धर्म गुरुओं के जहरीले संभाषणों की प्रतिक्रियायें सामने आ रहीं हैं और लोकतांत्रिक विश्वास अब अंध विश्वास के गर्त में समा चुका है। यह भी सत्य है कि अमन पसन्द लोगों की इस खास वर्ग में कमी नहीं है परन्तु उन्हें दबा दिया जाता है। विगत घटना क्रम में जुमे की नमाज के बाद पूरे देश को नबी की अजमत के नाम पर जलाने की कोशिश की गई। हापुड में थाना फूंक दिया गया, प्रयागराज में पीएसी का ट्रक जला दिया, हावडा में पुलिस वाहन में आग लगा दी, डोमजूर थाने में पथराव किया गया, पंजाब में कश्मीरी छात्रों ने हंगाम मचाया। रांची, बडौदा, सूरत, अहमदाबाद, पटना, औरंगाबाद, नवी मुंबई, पनवेल, सोलापुर, लुधियाना, छिंदवाडा, बलगावी, मुजफ्फरपुर, भागलपुर, भोजपुर जैसे सैकडों स्थानों पर कानून व्यवस्था को उपद्रवियों ने तार-तार करते हुए आतंक का खुला तांडव किया। कानपुर के शहर काजी मौलाना अब्दुल कुद्दूस हाजी ने तो सरकारी जमीन पर अतिक्रमण करके खडी की गई इमारतों पर बुल्डोजर चलने पर कफन बांधकर निकलने का ऐलान तक कर दिया। इसे कहते हैं चोरी और सीना जोरी। अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर सऊदी अरब, कतर, ईरान, तुर्की, बंगलादेश, म्यांमान, तालिबान, पाकिस्तान सहित अनेक मुस्लिम राष्ट्रों ने टिप्पणी की तह तक पहुंचे बिना ही सोची समझी योजना के तहत मोर्चा खोल दिया। यह वही राष्ट्र हैं जहां से जकात और फितरा के नाम पर भारी भारकम धनराशि देश के विभिन्न संगठनों को पहुंचाई जातीं है जिनका ज्यादतर उपयोग आतंक फैलाने, अराजकता पैदा करने तथा दहशत का माहौल बनाने के लिए किया जाता है। अलकायदा, एक्यूआईएस, आईएसआईएस जैसे आतंकी गिरोहों ने धमकियां देना शुरू कर दीं। कोई नूपुर की जुबान काटने पर करोड रुपये देने की बात करता है तो कोई उसकी हत्या की खुले आम सुपाडी देता है, कोई उसके साथ बलात्कार की धमकी देता है तो कई उसके अस्तित्व को ही समाप्त करने की घोषणा करता है। अन्य वर्गों के आराध्यों पर न केवल टिप्पणी करने बल्कि भगवान राम के अस्तित्व पर ही प्रश्नचिन्ह अंकित करने वाले राजनैतिक दलों और लोगों का इतिहास ही जयचन्द की परम्परा का नवीनतम अध्याय बन चुका है। यही अतीत की घटनायें बीच के रूप में बोई गईं थीं जो आज कटीला झाड बन चुका है। इस मानसिकता से हटकर आने वाले दल के सत्तारूढ होते ही कटीले झाड की वास्तविकता मखमल की बाड से बाहर झांकने लगी। अब देश के हालातों को सम्हालने के लिए केवल और केवल एक देश-एक कानून ही अमोघ शस्त्र बन सकता है। तभी लोकतांत्रिक परम्परा का यह राष्ट्र वास्तव में धर्म निरपेक्ष देश बन सकेगा अन्यथा जनबल, धनबल और पहुंचबल के आधार पर नित नई मनमानियों का प्रत्यक्षीकरण होने की संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता। इस बार बस इतना ही। अगले सप्ताह एक नई आहट के साथ फिर मुलाकात होगी।

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